17.11.19

मूत्र चिकित्सा (यूरिन थेरेपी) से रोग निवारण/self urine therapy




परिचय-
मूत्र चिकित्सा Urine therapy  के बारे मे जहा बाइबिल मे जिक्र है वही आयुर्वेद मे इसका विस्तृत विवरण और रोगो का निदान है आयुर्वेद मे 9 प्रकार के मूत्र के बारे मे जिक्र है वर्तमान मे गोमूत्र का प्रचलन बड़ी तेजी से बढने का मुख्य कारण इससे उन रोगो का निदान भी हो रहा है जिनका प्रचलित किसी भी पद्धति मे इलाज नही है ,परन्तु यह लेख स्वमूत्र चिकित्सा के बारे मे और अनुभव के बाद लिखा हुआ है सामान्यतः स्वमूत्र चिकित्सा का सिद्धांत ,प्राकृतिक भोजन मे ही पूर्ण स्वास्थ्य के तत्व होते है के आधार पर है जैसे जैसे शरीर की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे शारारिक क्षमता घटने के कारण स्वास्थ्य के मुख्य तत्व मूत्र मे विसर्जित होने लगते है यदि इन्ही तत्वो को पुनः लिया जाए तो शरीर स्वस्थ्य होने लगता है चिकित्सा मे स्वमूत्र का मुख्य तीन प्रकार से प्रयोग किया जाता है
1.बाह्य रूप से -इसमे शरीर पर मालिश इत्यादि है
2.अतः करण रूप से -इसमे स्वमूत्र को पिया जाता है
3.गंध द्वारा- स्वमूत्र की गंध को सुंघकर चिकित्सा की जाती है


स्वमूत्र का प्रयोग -

स्वमूत्र चिकित्सा निम्न छह प्रकार से की जाती है-
1. स्वमूत्र से सारे शरीर की मालिश
2. स्वमूत्रपान
3. केवल स्वमूत्र और पानी के साथ उपवास
4. स्वमूत्र की पट्टी रखना
5. स्वमूत्र के साथ अन्य प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग
6. स्वमूत्र को सूर्य किरण देकर

(1) स्वमूत्र से मालिश

बड़े फोड़े, चमड़ी की सूजन, चीरे, जख्म, फफोले और आग के घाव आदि को छोड़कर शेष सभी रोगों के उपचार का आरंभ स्वमूत्र मालिश से करना चाहिए। मालिश के लिए 36 घंटे से सात-आठ दिन का पुराना स्वमूत्र ही अत्यधिक फायदेमंद सिद्ध होता है। पुराना होने पर इसमें अमोनिया नामक द्रव्य बढ़ जाता है। अमोनिया के कारण यह मूत्र शरीर के लाखोंलाख छिद्रों में जल्दी से और ज्यादा परिमाण में दाखिल हो जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति को मालिश के लिए प्रतिदिन करीब आधा सेर स्वमूत्र की आवश्यकता होती है। सात बड़ी शीशियों में सात दिन के पुराने स्वमूत्र का संग्रह क्रम में रखा जाए। शीशियों का मुँह हमेशा बन्द रखा जाए, ताकि उसमें कोई भी जीव-जन्तु मरने न पाए। मानव मूत्र कृमिनाशक है। उसमें कीड़े नहीं पड़ते। शीशियाँ इस क्रम में रखी जाएँ, ताकि जो शीशी खाली हो जाए वह भरती जाए। सर्दी की ऋतु में या मनुष्य की प्रकृति के अनुसार रखा हुआ मूत्र थोड़ा गरम भी किया जा सकता है।
 पहले रखे हुए स्वमूत्र में से एक पाव मूत्र एक कटोरी में डालकर तलवे से कमर तक मालिश करके सुखा दें और जो गंदा अंश कटोरी में बचे उसे गिरा दें। फिर एक पाव लेकर कमर से सिर तक मालिश करनी चाहिए। मालिश हलके हाथ से करनी चाहिए, ताकि रोगी या मालिश कराने वाले को कष्ट न हो। हाथ ऊपर-नीचे ले जाना चाहिए। मालिश कितनी देर की जाए यह आवश्यकतानुसार तय किया जा सकता है। अगर मालिश के लिए अपना मूत्र पर्याप्त न हो, तो दूसरे स्वस्थ व्यक्ति का (जो उसी प्रकार का आहार लेता हो) मूत्र ले सकते हैं।
 किसी भी रोग में, स्वमूत्र का प्रयोग मालिश से प्रारंभ किया जाए तो पहले सप्ताह में ही फायदा झलकने लगता है। चार-पाँच दिन की मालिश के बाद शरीर की गरमी बाहर आने लगती है और शरीर पर लाल रंग की सफेद मुँह वाली फुंसियाँ निकल आती हैं। कभी-कभी इनमें खुजली बढ़ जाती है। कभी-कभी खुजलाने से बड़े-बड़े फोड़े निकल आते हैं। लेकिन इससे न तो घबराना चाहिए और न ही उसका बाहरी इलाज ही इलाज करना चाहिए। मूत्र मालिश का क्रम जारी रखना चाहिए। जरा जोर से मालिश कर देने पर वे फुंसियाँ फूट जाएँगी और जहाँ उनमें मूत्र दाखिल हुआ वहाँ वे शांत हो जाएँगी। बड़े फोड़े होने पर गरम मूत्र से दो-तीन बार सेंक कर दें।
 ऐसा इसलिए होता है कि मालिश से शरीर के छिद्रों द्वारा मूत्र जब अन्दर जाता है, तो छोटे-छोटे रोग भागने लगते हैं, जिसकी यह पहली प्रतिक्रिया है। खुलजी, दाद, एक्जिमा आदि तथा शरीर के अन्य सामान्य रोग केवल दस-पन्द्रह दिन की मालिश से दूर होने लगते हैं, किन्तु यदि गंभीर और जीर्ण रोग हों, जिसे सूई लेकर या दवा की पुड़िया खाकर हटाया नहीं जा सका है, उस असाध्य से असाध्य रोग को मिटाने के लिए स्वमूत्र और निर्मल पानी के साथ उपवास करना ही होगा।
 मालिश करने के दो घंटे बाद गुनगुने या ठंडे जल से स्नान करना चाहिए। किसी प्रकार के साबुन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। मालिश करने के बाद धूप स्नान लिया जा सकता है। मेहनत भी की जा सकती है। स्वमूत्र चिकित्सा में मूत्र मालिश का एक अद्वितीय महत्वपूर्ण स्थान है। उपवास में यदि नियमित मूत्र मालिश न की गई, तो उपवास का सारा असर जाता रहता है और वह निष्फल सिद्ध होता है।

परिचय

स्वमूत्र चिकित्सा का अर्थ है स्वयं के मूत्र द्वारा विभिन्न बीमारियों का उपचार। इस पद्धति में न तो रोगी की नाड़ी देखने की आवश्यकता है, न एक्स-रे लेने की। न थर्मामीटर लगाना है, न सूई की जरूरत। न दवा और पथ्य का सिरदर्द है और न धन या समय खर्च करने की अनिवार्यता। इसमें स्वमूत्र ही निदानकर्ता, चिकित्सक एवं दवा है। रोगी स्वयं बिना खर्च और बिना किसी परिश्रम के स्वमूत्र सेवन कर रोगमुक्त हो सकता है। स्वमूत्र चिकित्सा के माध्यम से कई असाध्य बीमारियों का उपचार भी संभव है।

इतिहास
स्वमूत्र चिकित्सा का इतिहास काफी पुराना है। भगवान शंकर के डामरतंत्रान्तर्गत शिवाम्बुकल्प की अमरौली मुद्रा का परिचायक एक श्लोक है जिसमें कहा गया है-
शिवाम्बु चामृतं दिव्यं जरारोगविनाशनम्‌।
तदादाय महायोगी कुर्याद्वै निजसाधनम्‌॥1॥
शिवाम्बु दिव्य अमृत है, बुढ़ापे एवं रोग का नाशक है। महायोगी उसका पान करके अपनी साधना करें।
इसी प्रकार दूसरा श्लोक है-
द्वादशाब्दप्रयोगेण जीवेदाचन्द्रतारकम्‌।
बाध्यते नैव सर्पाद्यैर्विषाद्यैर्न विहिंस्यते॥
न दह्येताऽग्निना क्वापि जलं तरति काष्ठवत्‌।2
बारह वर्ष तक शिवाम्बु का सेवन करने वाला चाँद-तारों की तरह दीर्घ अवधि तक जीता है। उसे सर्प आदि विषैले प्राणी पीड़ा नहीं पहुँचाते और न उस पर विष का असर होता है। वह आग से कभी नहीं जलता और पानी पर लकड़ी की तरह तैरने लगता है।
उपलब्ध ग्रंथों में प्राप्त उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि आदिकालीन जम्बूदीप में मानव-मूत्र की चिकित्सा पद्धति प्रचलित थी और इसके आचार्य भगवान शंकर थे। कालान्तर में अरण्यांचलों में रहने तथा अपने निरन्तर अन्वेषणों के कारण ऋषि-कुल स्वमूत्र चिकित्सा के बजाय प्राकृतिक चिकित्सा की ओर झुका। 'जल, अग्नि, आकाश, मिट्टी और हवा' के विभिन्न प्रयोग कर उसने रोग से मुक्त होने की नई विधि बनाई। उसमें मूत्र चिकित्सा जैसी चमत्कारिता, पवित्रता तथा उपादेयता का अभाव रहा, इसलिए प्रकृति प्रदत्त जड़ी-बूटियों, खनिज पदार्थों आदि के गुणकारी तत्वों में पंचभूतों की खोज की गई, जिससे 'भेषज चिकित्सा' प्रणाली अविर्भूत हुई, जो आज आयुर्वेद के नाम से जानी जाती है।
भावप्रकाश में स्वमूत्र की चर्चा करते हुए इसे रसायन, निर्दोष और विषघ्न बताया गया है। डामरतन्त्र में प्राप्त उद्धरणों के अनुसार भगवान शंकर ने माता पार्वती को इसकी महिमा समझाई और कहा कि स्वशरीर के लिए स्वमूत्र अमृत है। इसके प्राशन से मनुष्य निरोग, तेजस्वी, बलिष्ठ, कांतिवान, निरापद तथा दीर्घायु को प्राप्त होता है। अथर्ववेद, हठयोगप्रदीपिका, हारीत, वृद्धवाग्भट्ट, योगरत्नाकर, जैन, बौद्ध, ईसाई आदि धर्मों के अनेक ग्रंथों में स्वमूत्र चिकित्सा की चर्चा है।
अघोरपंथी अवधूतों तथा तांत्रिकों की परम्परागत स्वमूत्र प्राशन विधि तथा स्वमूत्र मालिश क्रिया ने स्वमूत्र चिकित्सा को आज तक जीवित रखकर न केवल मानव जाति का उपकार किया है, वरन चिन्तकों के समक्ष यह यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया है कि वे इस चिकित्सा प्रणाली को पुनः प्रतिष्ठित करने की अगुआई करें।
सोलहवीं शताब्दी के सूफी कवियों और एशिया तथा यूरोप के कुछ वैज्ञानिकों ने स्वमूत्र चिकित्सा को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया, मगर उन्हें सफलता नहीं मिली। मगर इतना निर्विवाद है कि आज भी शीत प्रदेश तथा पीत प्रदेश में रहने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं, जो स्वमूत्र प्राशन से अपने को निरोग रखते हुए दीर्घ जीवन जीते हैं।
तिरुवनंतपुरम स्थित गवर्नमेंट आयुर्वेद कॉलेज द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक आयुर्वेदिक नारियल चटाई से लैस कमरों में रहने से कई बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। इस शोध के अंतर्गत शोधकर्ताओं ने लोगों को दो समूहों में बाँटा। कुछ लोगों को आयुर्वेदिक तत्वों से युक्त नारियल रेशों से बनी चटाइयों से फिट कमरों में रखा गया, जबकि कुछ को साधारण कमरों में।
कुछ कमरों की आंतरिक दीवारों और फर्श को इन चटाइयों से लैस किया गया, जबकि दूसरे कमरों को इससे वंचित रखा गया। 36 रोगियों पर यह शोध किया गया। 19 रोगियों को आयुर्वेदिक चटाइयों वाले कमरों में रखा गया जबकि शेष को सामान्य कमरों में।
इन चटाइयों को कई तरह के आयुर्वेदिक तत्वों के घोल में डालकर सुखाया गया था। यहाँ तक कि बिस्तर और तकियों को भी कुछ खास तरह की जड़ी-बूटियों के घोल में डुबोकर सुखाया गया। फिर उन पर रोगियों को सोने के लिए कहा गया। दोनों तरह के रोगियों को एक ही तरह की दवाई और भोजन दिया गया। जिन रोगियों को आयुर्वेदिक कमरों में रखा गया, उनमें कई सकारात्मक बदलाव देखे गए।
आयुर्वेद के एक डॉक्टर एन. विश्वनाथन ने दावा किया कि जो रोगी चर्मरोग से ग्रस्त थे और जिन्हें आयुर्वेदिक कमरों में रखा या था, वे गैर-आयुर्वेदिक कमरों में रहने वाले लोगों की तुलना में काफी कम समय में चंगे हो गए। वे इन आयुर्वेदिक कमरों में दो सप्ताह रहने के बाद स्वस्थ हो गए, जबकि सामान्य आहार और दवा लेने वाले दूसरे रोगियों को और 26 दिनों तक स्वस्थ होने के लिए इंतजार करना पड़ा। उनके मुताबिक गठिया, उच्च रक्तचाप आदि जैसी बीमारियों से ग्रस्त लोगों पर यह आयुर्वेदिक तकनीकी अधिक असर दिखाती है।
 अतः करण रूप मे इसका प्रयोग जहा इसको तुरंत विसर्जित वाले का सेवन किया जाता है वही बाह्य रूप मे इसका प्रयोग तुरंत विसर्जित से लेकर 9 दिन तक पुराने वाले का प्रयोग किया जाता है इसमे प्रतिदिन एक बोतल भरतेहुए 9 बोतल भर लेते हैं 10 वे दिन ,पहली दिन वाली बोतल अर्थात 9 दिन पुराने मूत्र से शरीर पर चर्म रोग ,अन्य दर्दों वाले स्थानो पर मालिश लगातार 15-20 दिन की जाए तो चर्म व अन्य रोग दूर हो जाते हैं वही तुरंत विसर्जित वाले मूत्र को आंख,कान दर्द, जैसे अनेक रोगो मे इसकी बूंद डालकर इसका प्रयोग किया जा सकता है 
  यदि बॉल झडते है तब इससे इनको धोया जाए तो उनका झड़ना बंद हो जाता है परहेज के नाम पर मात्र साबुन शेम्पू का प्रयोग नही करना है खाने के नाम पर मात्र सात्विक भोजन करना है ये तो मात्र कुछ उदहारण है मात्र उपरोक्त सरल विधि विधान से स्वमूत्र चिकित्सा द्वारा लगभग सभी रोगों का इलाज है इस पद्धति मे पहले रोग अपने चरम अवस्था मे आकर धीमे-धीमे उसका शमन होने लगता है यदि सामान्य अवस्था मे स्वमूत्र चिकित्सा को किया जाए तो तो शरीर उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त करता जाता है तब स्वमूत्र को जिसे हम सबसे घ्रृणित व त्याज्य मानते है वह तो हमारी सभी रोगो की रामवाण दवा है अर्थात एक अनार( स्वमूत्र),सौ बीमार की दवा है यह स्वमूत्र चिकित्सा मानव के लिए ही नही ,पशुयों के लिए भी उतनी उपयोगी है जितनी मानव के लिए .वैसे दवा दवे(रहस्य) की होती है और प्राण के मूल्य पर ,औषधि का हर रूप स्वीकार होता है तब क्या समाज मे स्वमूत्र का औषधि रूप प्रचलित हो पाएगा ? जिसको कभी हमारे भूतपूर्व प्रधान मंत्री मोरार जी देसाई ने जीवन जल का नाम दिया था अर्थात कलियुग का गंगाजल.
 स्वमूत्र चिकित्सा का अर्थ है स्वयं के मूत्र द्वारा विभिन्न बीमारियों का उपचार। इस पद्धति में न तो रोगी की नाड़ी देखने की आवश्यकता है, न एक्स-रे लेने की। न थर्मामीटर लगाना है, न सूई की जरूरत। न दवा और पथ्य का सिरदर्द है और न धन या समय खर्च करने की अनिवार्यता। इसमें स्वमूत्र ही निदानकर्ता, चिकित्सक एवं दवा है। रोगी स्वयं बिना खर्च और बिना किसी परिश्रम के स्वमूत्र सेवन कर रोगमुक्त हो सकता है।
 स्वमूत्र चिकित्सा के माध्यम से कई असाध्य बीमारियों का उपचार भी संभव है।स्वमूत्र चिकित्सा निम्न छह प्रकार से की जाती है|स्वमूत्र से सारे शरीर की मालिश स्वमूत्रपान,केवल स्वमूत्र और पानी के साथ उपवास,स्वमूत्र की पट्टी रखना,स्वमूत्र के साथ अन्य प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग|स्वमूत्र को सूर्य किरण देकर प्रावीष्ठ बड़े फोड़े, चमड़ी की सूजन, चीरे, जख्म, फफोले और आग के घाव आदि को छोड़कर शेष सभी रोगों के उपचार का आरंभ स्वमूत्र मालिश से करना चाहिए। मालिश के लिए 36 घंटे से सात-आठ दिन का पुराना स्वमूत्र ही अत्यधिक फायदेमंद सिद्ध होता है। पुराना होने पर इसमें अमोनिया नामक द्रव्य बढ़ जाता है। अमोनिया के कारण यह मूत्र शरीर के लाखों लाख छिद्रों में जल्दी से और ज्यादा परिमाण में प्रविष्ठ>हो जाता है।
 प्रत्येक व्यक्ति को मालिश के लिए प्रतिदिन करीब आधा लीटर स्वमूत्र की आवश्यकता होती है। सात बड़ी शीशियों में सात दिन के पुराने स्वमूत्र का संग्रह क्रम में रखा जाए। शीशियों का मुँह हमेशा बन्द रखा जाए, ताकि उसमें कोई भी जीव-जन्तु मरने न पाए। मानव मूत्र कृमिनाशक है। उसमें कीड़े नहीं पड़ते। शीशियाँ इस क्रम में रखी जाएँ, ताकि जो शीशी खाली हो जाए वह भरती जाए। सर्दी की ऋतु में या मनुष्य की प्रकृति के अनुसार रखा हुआ मूत्र थोड़ा गरम भी किया जा सकता है।पहले रखे हुए स्वमूत्र में से एक पाव मूत्र एक कटोरी में डालकर तलवे से कमर तक मालिश करके सुखा दें और जो गंदा अंश कटोरी में बचे उसे गिरा दें। फिर एक पाव लेकर कमर से सिर तक मालिश करनी चाहिए। मालिश हलके हाथ से करनी चाहिए, ताकि रोगी या मालिश कराने वाले को कष्ट न हो। हाथ ऊपर-नीचे ले जाना चाहिए। मालिश कितनी देर की जाए यह आवश्यकतानुसार तय किया जा सकता है। अगर मालिश के लिए अपना मूत्र पर्याप्त न हो, तो दूसरे स्वस्थ व्यक्ति का (जो उसी प्रकार का आहार लेता हो) मूत्र ले सकते हैं।सभी रोग में, स्वमूत्र का प्रयोग मालिश से प्रारंभ किया जाए तो पहले सप्ताह में ही फायदा झलकने लगता है।

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